बिटिया ने कदम रख देहलीज़ में
सपनो को सजाने का मन बनाया
न जाने कब ये खबर आग की तरह
हर तरफ फ़ैल गई ?
गलियों में आना - जाना लगा है
घर में कुशल लेने वालों का ताँता लगा है ,
अभी पंख फडफडाये भी न थे की ...
चील , गिद्दों की नजर में लोभ छाने लगा है ,
आँचल में छुपाती देह अपनी
वो कसमसाई सी खड़ी है
आज तक जो बेबाक खेलती थी
तंग गलियों में ...
आज उन्ही से बचके गुजर रही है
पेट की भूख उसे बाहर धकेलती
घूरती निगाह उसके होंसले छीन लेती
न भूख का निवारण हुआ
और न ही मंजिल मिली
जख्मी हाथ , लहुलुहान जिस्म
होंठों पर निशानों में ही
सिमट गई जिंदगी |