आलीशान महलों कि चाहत में
हम दीवारों से बातें करने लगे |
मेज , कुर्सी का साथ पाकर ही
खुद को धनवान समझने लगे |
अपनों के साथ से थोड़े थके - थके
ओरों से दिल कि बात करने लगे |
ये कैसी नई चाहत का दौर चला
कि रिश्ते अब कमजोर पड़ने लगे |
इतनी बैचेनियाँ क्यु भरे खुद में
कि जीना ही मुहाल लगने लगे |
चलो समेट लेते हैं इस सफर को
कहीं रिश्ते ही न हमसे दूर होने लगे |
हम मानते हैं कि ये नए दौर कि बात है |
पर रिश्तों तो हमारे उतने ही खास हैं |
8 टिप्पणियां:
खास होते हैं रिश्ते लेकिन सच आज उनकी गरिमा कहीं खत्म होती जा रही है ... सुंदर प्रस्तुति
बात तो सही कही है …………मगर अब वो बात रही नही रिश्तों मे ………ताली एक हाथ से नही बजती ना।
apni marzi se kahaan apne safar ke hum hain....rukh hawaaon ka jidhar ka hai udhar ke hum hain!
रिश्तों की डोर सब साधनों को और मीठा कर देती है..
sambandhon ka astitv khataren me hai ...lajabab prastuti.
मार्मिक भावाभिवय्क्ति.....
खूबसूरत प्रस्तुति
आपका सवाई सिंह राजपुरोहित
एक ब्लॉग सबका
आज का आगरा
आपकी कविता अच्छी लगी |
रिश्तों को निभाना पड़ता है, और आज के दौड़ भरी जिंदगी में जो साथ दौड़ रहा होता है अकसर उसी से रिश्ता निभ पाता है| फिर निभता भी उसी से है जहाँ परस्पर स्वार्थ होता है| निःस्वार्थ रिश्ते भी होते है, पर बहुत कम|
जरूरत इस बात की है कि पारंपरिक रिश्तों को समय दिया जाय| ऐसा जब होगा तब जिन्गदी में उन रिश्तों से मिलने वाली मिठास भर जायेगी|
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