बहुत अरसे बाद गली के नुक्कड़ में
हमें मिली थी वो |
शानों शौकत से लबरेज ,
गाड़ी से अभी - अभी उतरी थी वो |
हमें देखते ही तपाक से गले मिलने लगी |
जैसे कैद से किसी पंछी को
कुछ वक्त उड़ने की इज़ाज़त मिली |
मेरी क्या सुनती , वो तो अपनी ही कहने लगी |
ऐसा लगा माँनो बरसो बाद , फिर वो बहकने लगी |
हमने भी हाथ में मोबाइल देख
चुटकी लेते हुए बात को पलटना चाहा |
उसकी बात को रोक फिकरा एक कसना चाहा |
लगता है आजकल , सारे जहाँ से जुडी हो ?
किसी और की नहीं , सिर्फ अपनी ही सुनाती हो ?
बस इतना सुनते ही वो रुआंसी सी होने लगी |
खिलखिलाहट के बीच ,
उदासी की झलक साफ़ दिखने लगी |
मोबाइल को देखते हुए , बस इतना ही कहने लगी |
इससे भले तो हम पहले थे ...
दोस्तों के बीच जाकर हँसते - बोलते तो थे |
अब तो इसकी ट्रिन - ट्रिन से ही माहोल बिगड जाता है |
रांग नम्बर होने पर भी सवाल खड़ा हो जाता है |
और क्या कहूँ ? ये तो बस मेरी सुरक्षा का एक बहाना है |
कही दूर होने पर पूरी घटना का ब्यौरा जो सुनाना है |