जब - जब बहार है आती |
गम के सारे बादल है ले जाती |
जब चारों तरफ सन्नाटा है छाता |
हमसे वो कुछ तो है कह जाता |
सबके हिस्से का है सूरज |
सबके हिस्से में आते है सुख - दुःख |
फिर क्यु नदिया सी रोती है ये आँखे ...
क्यु नहीं कह देती हंसके सारी बातें |
बादल बनके बरसकर
फिर क्यु अपना आस्तिव है रचती |
क्यु छाता है ये अँधेरा
किससे मिलने जाता है छुप - छुपकर |
और उगते सूरज की रौशनी में
क्यु शर्माता है वो रह - रहकर |
नदिया की कलकल धारा सा
क्यु बहता है सबका मन |
राह में मिलते फूल - काँटों को
क्यु समेटता है हर पल |
धुल - मिटटी का श्रृंगार करके
क्यु मचलती है ये पवन हरदम |
कभी मंद गति से बढती
तो कभी क्यु ढहा देती है सबकुछ |
हाँ कोई तो है इसका रचेता
वही करवाता है हमसे ये सबकुछ |
7 टिप्पणियां:
bahut badiya rachna hai
rachnaakar ki
कोई तो है इसका रचेता
वही करवाता है हमसे ये सबकुछ |
sach hai
हाँ कोई तो है इसका रचेता
वही करवाता है हमसे ये सबकुछ |
बिलकुल सही बात काही है आपने।
सादर
बहुत ही बढ़िया रचना।
कोई तो है जो यह सब करवाता है हमसे.....ठीक है,फिर भी हम यह तो जानते ही हैं क्या गलत है क्या सही !
हर तरफ हर ज़गह हर कही पर है हाँ उसी का नूर ...
रौशनी का कोई दरिया तो है कही पर ज़रूर !
बहुत बेहतरीन
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