बरस बादल , घटा बनकर
धरा की रूह है प्यासी |
भिगो तन को सभी के
हर तरफ छाई है ख़ामोशी |
भरोसा न रख तुझपर इंसा ने ,
उसे फिर कर दिया रुसवा |
तेरा नाम बदनाम कर
बना डाले उसने कई और मकां |
खुदगर्ज़ कितना हो गया इंसा
जिसे न फ़िक्र किसी की |
परवाह जो करने लगा
अब वो सिर्फ और सिर्फ खुद ही की |
लहू अपना पीला जो
पाल रही है वर्षों से जन - जन को |
इंसान बेदर्दी से खुले आम ...
भेद रहा है आज उसके ही सीने को |
चंद पैसों की खातिर बेच रहा
आज वो खुद अपने ही अंश को |
14 टिप्पणियां:
अच्छी रचना
सच का आईना दिखाती रचना....
काश, किसी देश के लिये ऐसी कविता लिखने की स्थिति न आये।
भावुक कर देने वाली कविता... सचमुच स्थिति विषम हो रही है...
सुन्दर प्रस्तुति
भावपूर्ण रचना ...
बहुत बहुत बधाई आपको !
मेरी नई पोस्ट के लीये आपका स्वागत है !
मानव भूके भेदिये सा सब कुछ खा जाना चाहता है ... सचाई बयान करती है ये रचना ...
बहुत सार्थक प्रस्तुति।
aaj ka 100% sach
accha soch,sunder rachna
bahut sunder sateek rachna par apko badhayi.
संवेदन शील रचना ..बहत बदिया
सैटिंग में जाकर
इसके कैलेंडर को
कर लीजिए सही
बहुत पुरानी
दिखला रही है तिथि।
खेत भी हैं
खलिहान भी हैं
बियाबान भी हैं
और उनके
ऊपर उड़ते
वायुयान भी हैं।
सच तो ये है कि सच आज लहुलुहान है
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