उसको तो कुछ न कुछ है रंगना |
मंदिर , मस्जिद में चला गया |
थी कोशिश इंसा में ही रब को पाना |
पर कोई भी एसा नहीं मिला |
अपनी रचना सा नहीं दिखा |
फिर दूर तलक वो जब पहुंचा |
बंसी की धुन सुन ठिठक गया |
सृष्टि में एक ख़ामोशी थी |
बंसी की धुन ही बाकि थी |
बंसी की धुन ही बाकि थी |
चेहरे में उसके रौनक थी |
उसकी रचना अब पूरी थी |
उसने उसमें कुछ देखा था |
शायद प्रेम रस ही बरसा था |
वो उसकी धुन में बह निकला |
सृष्टी के ही रंग में रंग निकला |
फिर एक नई तस्वीर बनी |
इंसा के अन्दर की तस्वीर सजी |
जिसे वो बाहर खोजा करता था |
रंगने को तडपा करता था |
अब उसके रंगों को पंख मिले |
उसके जीवन को ढंग मिले |
अब एसे ना वो भटकेगा |
खुद अपनी तस्वीर बनाएगा |
अब उसके रंगों को पंख मिले |
उसके जीवन को ढंग मिले |
अब एसे ना वो भटकेगा |
खुद अपनी तस्वीर बनाएगा |
इंसा को इंसा से मिलाएगा |
7 टिप्पणियां:
कविता का भाव आकर्षित करता है।
मानवता का भाव उकेरना है।
अच्छे रंग उभरे इय शब्द-चित्र में.
बेहतरीन!
सादर
adbhut bhaw sanyojan
भावमय करते शब्द ।
बेहतरीन!
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