कैसा हो सृजन


किसकी आँखों में सपना नहीं |
किसके आँखों में गीत नहीं |
कौन  से हैं वो होंठ जो मुस्कुराना न चाहें |
सब जीवन को ढोह रहें हैं |
सबका जीवन एक बोझ है |
चलते भी कहाँ हैं ...
समझो की खुद को घसीट रहें हैं |
आँखों में आसुओं के सिवा कुछ भी नहीं |
हर तरफ संताप ही संताप |
पैरों  में जैसे बेड़ियाँ सी पड़ी हों |
और राजनेता ...
इन्हीं से अपना धन्दा कर रहें हैं |
फिर सृजन कैसे संभव हो |
सृजन तो स्वतंत्र विचार मांगता है |
जिसमें कुछ नया गढ़ा जा सके |
सबकी आँखों में सपना सज़ा सके |
हरेक के दिलों में खुशियाँ  ला सके |
सब बंधन को तोड़ आज़ाद घूम सके |
और सृजन की नई परिभाषा लिख सके |

ये मेरा देश


इधर से उधर में छुप - छुप के जी जा रही  हूँ |
फिर हर दम देश की माला जपे जा रही  हूँ |
जब जलती है मासूम अपने ही घर में |
मैं रो - रोके फिर अपना देश कहे जा रही हूँ |
जुल्म करता है कोई और भरता है कोई |
दुसरे के गुनाहों की सज़ा काटे जा रही हूँ |
महंगाई की मार से हरपल घबरा  रही  हूँ |
फिर भी अपने देश की ही माला जपे जा रही  हूँ |
भ्रष्टाचार की गर्द में डूब रहा ये हरपल |
फिर भी उससे उम्मीदों की माला जपे जा रही हूँ |
मासूम बहनें और माएं रोंदी जाती है सरे राह |
मैं उनकी सजाओं की उम्मीदों में जगे जा रहीं हूँ |
बच्चे  सड़कों में सरे आम हैं मारे जाते |
में पुलिस से इसकी गुहार लगाए जा रही हूँ |
जब कोई  बात भी यहाँ सुलझती न दिखती |
फिर भी  मेरा देश - मेरा देश कहे जा रही हूँ  |

बस थोडा सा प्यार दो


चलो आज फिर उनके  कुचे में जाएँ |
उन्हें  हम बुलाएँ उन्हें हम हंसाये |
किस कदर  दुनियां से दूर रहते हैं ये सब |
फिर भी कहते हैं यहाँ ... मेरे ही तो  हैं सब |
क्यु इनकी दुनियां इनसे इतनी खफा है |
सब हैं इनके फिर भी इनसे जुदा हैं |
यही दस्तूर हैं शायद घर बनाने वालों का |
बनाने वाला हमेशा बरामदों में खड़ा है |
इनकी हिम्मत ही इनके जीने का हैं मकसद |
वर्ना दिल तो इनका कबका छलनी हुआ है |
क्यु दर्द देतें हैं अपने अपनों को इस कदर |
क्या कोई कभी इनसे हुई कुछ खता है ?
फिर भी है जन्मदाता इन्हें क्यु सताना |
इनकी छोटी भूल पर भी इन्हें गले तुम लगाना |
इनकी उम्र में अपने बचपन को देखो |
खुद को माँ - बाप इनकों बच्चा ही  तुम समझो |
बहुत अकेले हैं ये इन्हें कुछ  तो संभालो |
इनके दर्द में  मलहम आज फिर से लगाओ |
खुद थोडा झुक कर इन्हें उपर उठाओ |
इनके आशीर्वाद से अपना जीवन संवारों |

यादें


जिंदगी की भीड़ में , याद आतें हैं वो पल 
वो छोटा सा घर , वो प्यारा सा घर
खुशियों से हरदम , भरा  था जो कल  
वो खुला आसमान , वो ठंडी हवाएं 
हर पल मुझे पुकारे , वो प्यारा मेरा  घर 
सबकी बातों से दूर , माँ के आँचल से दूर 
न जाने क्यु  सताएं , वो फुर्सत के  पल 
अक्सर कई  बुलंदियों को , छुं तो लेते हैं हम 
पर न भूल पाते हैं  , हम वो हसीन कल 
वो माँ - बाबा की बातें , वो हँसना - हँसाना 
भाई - बहन का  हरदम लड़ना - लड़ाना  
फिर पास आकार ,  एक दूजे को मनाना 
फिर कैसे भूल जाएँ हम  बिता हुआ  कल 
जिसमें आज भी बसती  है  बातें हमारी 
यादों के साये में , लिपटी  प्यारी सौगातें 
यादें कब - कहाँ किसका पीछा छोडती हैं  
वो तो हरपल बस हमारे साथ  चलती हैं 
इन्सान के सफ़र की यादें ही तो हैं राहबर  
जो बार - बार ये कहती है ...
मैं आज भी वहीँ  हूँ तुम आओ न मेरे घर |
में आज भी वहीँ हूँ ... तुम आओ न मेरे घर |

इंतजार



तितली सा मन बावरा , उड़ने लगा आकाश ,
सतरंगी सपने बुने , मोरपंखी सी चाह |
आमंत्रित करने लगे , फिर से नये गुनाह ,
सोंधी सोंधी हर सुबह , भीनी भीनी शाम |
महकी सी है  सुबह और बहकी - बहकी धूप ,
दर्पण मै न समां  रहे , ये रंग - बिरंगे रूप |
जाने फिर कयूँ  धुप से , हुए गुलाबी गाल ,
रही खनकती चूड़िया , रही लरजती रात |
आँखे खिड़की पर टिके , दरवाजे पर कान ,
इस विरह की रात का , अब तो करो निदान |
सिमटी सी नादां कली,  आई गाँव  से खूब ,
शहर मै खोजती फिरती , अपने सईयाँ का प्यार |
आँखों मै छुपने  लगे , विरह गीतों के गान ,
अन्दर  कुछ  न बोलती , बाहर हास - परिहास |