उफ़ !
और कितना लहू पिओगे |
वैसे आदमखोर ...
पहले तो न थे तुम |
कच्ची - पक्की कंटीली राहों से
अक्सर गुजरी हूँ मैं ,
पर इस तरह का खौफ
पहले कभी , जहन में न था |
अब तो राहों में , चलने से
डरने लगी हूँ मैं |
घर से कोई भी निकले
खुदा की बंदगी करने लगी हूँ मैं |
कितनी ख़ामोशी से ...वाहनों को पलट
तुम इंसान निगल जाते हो |
ऐसे दरिंदगी का खेल ...
तुम कैसे ,
किस अंदाज़ से खेल जाते हो ?
बिना दर्द , बिना अहसास के
ये सब करना इतना आंसा नहीं |
फिर किसके इशारे में
ये खौफनाक मंजर सजाते हो |
कातिल सा ये भयानक लफ्ज़
तुम पर अच्छा नहीं लगता |
इंसान न होकर भी ये इल्ज़ाम
सच कहूँ यकीं नहीं होता |