सड़क


उफ़ !
और कितना लहू पिओगे  |
वैसे आदमखोर ...
पहले तो न थे तुम |
कच्ची - पक्की कंटीली राहों से
अक्सर गुजरी हूँ  मैं ,
पर इस तरह का खौफ
पहले कभी , जहन में न था |
अब तो राहों में , चलने से
डरने लगी हूँ मैं  |
घर से कोई भी निकले
खुदा की बंदगी करने लगी हूँ मैं |
कितनी ख़ामोशी से ...वाहनों को पलट
तुम इंसान निगल जाते हो |
ऐसे दरिंदगी का खेल ...
तुम कैसे ,
किस अंदाज़ से खेल जाते हो ?
बिना दर्द , बिना अहसास के
ये सब करना इतना आंसा नहीं |
फिर किसके इशारे में
ये खौफनाक मंजर सजाते हो |
कातिल सा ये भयानक लफ्ज़
तुम पर अच्छा नहीं लगता |
इंसान न होकर भी ये इल्ज़ाम
सच कहूँ यकीं नहीं होता |

आंधी



रोज रास्ते में , कभी - कभी टकरा जाती है |
धुल के साथ , पत्तों को भी साथ ले आती है |
बदल जाता है तब सारा आलम ...
जब - जब ये हकीकत में , दस्तक दे जाती है |
एक आशंका दिल में , रह - रहकर सताती है
ये जानते हुए भी की , कुछ देर के लिए ही आती है |
पर जाते - जाते अपने , कई निशां छोड़ जाती है |
निरंतर उसका आगे बढते जाना ...
डाली , टहनियों और कभी- २ पेड़ों को उखाड जाना ,
बढती गाड़ियों की , गति धीमी करते जाना ,
कभी किसी खम्बे से , टकरा तारो को गिरा जाना ,
सड़क पर बेसुध सी , बिछी दिख जाती है |
और जो रास्ते में हैं , उनसे ये अक्सर टकरा जाती है |
ऐसी आंधियां कई - कई बार , जिन्दगी में आती है |
कुछ ही पल में   , सारा सुकूने हयात ले जाती हैं |