ख़ामोशी कि जुबानी



शांत बैठी लहरों को  तब तक कोई कहाँ जान पाता है |
सागर कि उठती लहरें ही तो कराती है प्रलय का भान |

गगन में विचरते बादलों को भी  तब मिलता है सम्मान |
गरज - बरस भिगो धरा को जब करते हैं वो अपना काम | 

हवा के आस्तिव को आज तक कोई कहाँ जान पाया है |
आँधियों का  रूप ही तो उसके होने का पता बताते  है |

खामोश बैठी रूह को कहाँ तब तक कोई  सीने से लगता है |
उसके कर्म ही तो उसे सही - गलत कि पदवी दिलाता है |

इंसान के भीतर के दर्द को कब कहाँ कोई जान पाता है |
उसके चेहरे के  हाव - भाव ही तो इसका पता बताते हैं |

बिना किसी चाहत के कहाँ दे रहा है कोई किसी को प्यार  |
तभी तो सारे जहाँ में खोजता फिर रहा है वो थोडा सम्मान |



कौन है वो




गरजती है बरसती है  सीने से लगती है |
मेरी बैचेन सांसों को वो ऐसे सजाती   है |

मैं  पास जाता हूँ तो वो दामन  बचाती  है |
मुझे दिन रात वो हर पल  ऐसे सताती है |

मेरे न होने पर वो कुछ  खामोश होती है |
मेरे आने पर वो इसका जश्न मनाती है |

कभी बहुत रुलाती है कभी मान जाती है |
मेरे सोये अरमान को फिर से जगाती है |

बड़ा  दिलकश उसका ये अंदाज़ लगता है |
जो दिन - रात हर हाल में साथ रहता  है |

उसकी  हंसी वो  उसका बालपन प्यारा |
मेरे तो रोम - २  को पुलकित करता  है |

वो जब भी मुसकुराती है तो फूल छरते हैं |
ठंडी हवाओं के छोकें उसका पैगाम लाते हैं |

मैं फिर संभालता   हूँ फिर आगे को बढता हूँ |
वो तो संग साया बनके मेरे साथ चलती है |

मैं जब लडखडाता हूँ वो आके थाम लेती  है |
अपने होने का मीठा  एहसास छोड जाता है |

ख्यालों में

 

वो लम्हें  गुज़र गए वो अरसे गुज़र गए |
न जाने कौन सा वक्त साजिश ये कर गया |

तमाम  उम्र तो गुज़र गई ये सोचते हुए |
हाँ ये सच है कि अब मैं कुछ संवर गया |

जब तक था वो जहन में तब तक तो ठीक था |
जब पहुंचा नाम जुबाँ तक तो मंज़र बिगड गया |

यूँ कहो तो उसमे भी तासीर कुछ कम न थी |
जब पास जाके मैंने छुआ तो वो सिहर गया |

सोचा था देखूं तुझे पास से इतने करीब से |
मेरा ये ख्वाब न जाने कहाँ जाके खो गया |

इक रोज जब  जुबाँ ने तेरा नाम ले लिया |
ये दौड़ता हुआ शहर अचानक से थम गया |

अब तक जो मेरे ख्यालों में था पल रहा |
अब देखो एक गज़ल बनके निखर गया |

मुरली वाला

 
कभी देखा नहीं मैंने तुझे
किस्से कहानियों से जाना है |
बहुत नटखट है तू
तेरी लीलाओं ने बताया  है
बचपन में  सारी ग्वालनों को
तू सताता था |
तोडके  मटकी सबकी जाके
माँ के आँचल में  छुप जाता था |
सबको अच्छे - बुरे का
भान भी तू कराता था |
हर अंदाज़ में जीने का ढंग
सबको सिखाता था |
बड़ा हुआ तो गोपियों संग
खूब रास भी तूने रचाया था |
इस कद्र सबके लिए निश्छल
प्यार कहाँ से तू लाया  था |
बिना चाहत के हर कोई तेरा
दीवाना हो जाना चाहता था |
गीता का ज्ञान भी मेरे श्याम ने
कराया था |
राधा के प्यार को तुने जब
सीने से  लगाया था |
खुद से पहले उसके नाम को
सम्मान दिलाया था |
मीरा ने भी लोक - लाज
छोड कर तुझसे प्रीत लगाई थी |
तेरे नाम के सिमरन में ही
एक अलख जगाई थी |
कंस को मार तुने जन को
मुक्ति दिलाई थी |
तभी तो हर जुबाँ ने सिर्फ
श्याम  कि ही रट  लगाई थी |
तेरी लीलाओं का अंत
हमने  अब तक न पाया है |
शायद  इसीलिए सारी सृष्टि में
आज भी बस तू ही तू समाया  है |