
शांत बैठी लहरों को तब तक कोई कहाँ जान पाता है |
सागर कि उठती लहरें ही तो कराती है प्रलय का भान |
गगन में विचरते बादलों को भी तब मिलता है सम्मान |
गरज - बरस भिगो धरा को जब करते हैं वो अपना काम |
गरज - बरस भिगो धरा को जब करते हैं वो अपना काम |
हवा के आस्तिव को आज तक कोई कहाँ जान पाया है |
आँधियों का रूप ही तो उसके होने का पता बताते है |
खामोश बैठी रूह को कहाँ तब तक कोई सीने से लगता है |
उसके कर्म ही तो उसे सही - गलत कि पदवी दिलाता है |
इंसान के भीतर के दर्द को कब कहाँ कोई जान पाता है |
उसके चेहरे के हाव - भाव ही तो इसका पता बताते हैं |
बिना किसी चाहत के कहाँ दे रहा है कोई किसी को प्यार |
तभी तो सारे जहाँ में खोजता फिर रहा है वो थोडा सम्मान |
इंसान के भीतर के दर्द को कब कहाँ कोई जान पाता है |
उसके चेहरे के हाव - भाव ही तो इसका पता बताते हैं |
बिना किसी चाहत के कहाँ दे रहा है कोई किसी को प्यार |
तभी तो सारे जहाँ में खोजता फिर रहा है वो थोडा सम्मान |