मंजिल कि तलाश


ऐ पथिक ! 
थोडा ठहर , साथ मैं भी चल सकूँ  |
राह में आगे निकल 
मंजिल कि तलाश तक  |
लहरों से डरकर जो तुम 
कश्ती  दरिया में न उतारोगे |
अपने गंतव्य कि दौड़ में 
बहुत पीछे तुम रह जाओगे |
लोभ , लालच कि गर्द में 
डूबा हुआ ये विश्व है |
हिसा - अहिंसा का राह में 
फैला हुआ  समुद्र है |
फूलों की  ख्वाइश जो की  तो 
काँटों पर भी चलना होगा  |
मोती जो तुमको चाहिए 
गहरे सागर भी उतरना होगा  |
सारी  विपदाओं को जीत कर 
आगे तुम जो बड़ते जाओगे  |
थाम लेना हाथ मेरा थककर 
राह में जो तुम रुक जाओगे  |
करना प्रतीक्षा सुदूर भविष्य 
कि गंतव्य  तक |
चलना निरंतर ... धैर्य रख 
मंजिल पाने कि चाह तक |

आवाहन


मैं बढ़ी जा रही हूँ , पर तुम्हें भूली  नहीं हुं |
जल रही हुं पर जलनें से , रौशन  हुई हुं |
ढल रही हुं पर साथ मिलता है समय का |
चल रही हुं पर साथ साया है तुम्हारा |
चाहती हुं , दो पल रुक जाऊ  साथ तुम्हारे |
पर क्या करूँ , असंख्य हाथ है मुझको पुकारे |
पथ में मैं नये चलने जा रही हुं |
पर मैं क्या तुम्हें कभी भुला पा रही हुं |
जानते तो तुम भी हो ,  हर तरफ फैला है क्रंदन |
पर मुँह फेर कर ये तो होगा न कभी कम |
विश्व की ये वेदना कहानी तो नहीं है |
भूख  से बिलखते बच्चों के खून में
रवानी भी तो नहीं है |
शांति कैसे छाए , जब वातावरण में  उदासी भरी हो |
तृप्ति कैसे होगी , जब सृष्टि ही प्यासी पड़ी हो |
ऋण न चूका पायें तो  जन्म लेना भी व्यर्थ है |
यही सोचकर पाँव पथ की और अग्रसर हैं |
सोचती हुं आज कोई गीत ऐसा  गाऊँ   |
भीग जाये ये धरा मैं नीर ऐसा  बहाऊँ  |
मानव होकर मानव की वेदना को जो न जानें   |
व्यर्थ है जीना जो उसकी पीड़ा को  न पहचानें  |
मुझमें और उसमें अंतर तो ऐसा कोई नहीं है  |
मूक हुं तो क्या उसकी व्यथा न पहचानूँ  |
प्यासे पंछी को देख , जब फट सकता है मानव मन |
तो कंकाल होते देख , प्रेरणा क्यु न देता मन |
देखती सुनती मैं रहती हुं ये हर पल |
साथ हुं तेरे न भूली हुं तुझे एक भी पल |

नारी परिचय

नारी परिचय
तितली सी गगन में ,
उडती फिर रही है वो |
सारी सृष्टि को बस में ,
 करने चल पड़ी है वो |
साम , दाम , दंड , भेद 
उसने आज अपना लिया |
न आना उसकी राह में ,
उसने तो  बीड़ा आज उठा लिया |
तोड़ सारे बंधन आगे  
आज वो है  बढ चली |
किसकी थी खता , 
जो आज वो एसी बन चली |
इन्सां होके जब ...
इन्सां के दर्द को न जानोगे |
फिर अपनी अस्मिता के खातिर , 
उसको एसा ही पाओगे |
अब क्यु रुके वो , 
जब राह में इतने कांटे हों बिछे |
क्यु दे -  दे अपनी जान , 
जब जान के दुशमन 
सब उसके हो चले |
नारी के क्रंदन को ,
अपना दर्द गर न बनाओगे |
छुट जायेगा सब कुछ अगर ...
आज उसे तुम न अपनाओगे | 
नारी की देह केवल ,
एक खिलौना ही तो नहीं |
जान भी होती है उसमें , 
ये कब तुम समझ पाओगे ?
सारी सृष्टि में उसका भी तो अंश है |
उसके बिना तो हो सकता विध्वंश है |
नर - नारी दोनों का ,
सम्मान ही अपना धर्म है |
न करना विचार की वो नर से ,
कभी हो सकती भिन्न है |
जितनी  हवा दोगे , 
आग उतनी बढती चली जाएगी |
अपनी ही आग में सबको ...
राख़ करती जाएगी |
रोक लो उसको की ...
वो ज्वाला न बन जाये |
शांत करदो एसे की फिर से 
निर्मल धारा सी हो जाये | 

ज़ज्बात


कुछ का कहना है ...
ताक़त की ख्वाइश ,
लुट  का लालच ,
कमजोरों पर जुल्म ,
किसी की आत्मा पर किया गया 
कुठाराघात ,
ये सब सिर्फ  ज़ज्बात हैं |
दर्द देकर मलहम 
लगाने का ढोंग |
किसी की अश्मिता 
से खेलना ,
उसे अपना कहने की 
एक चाल है |
गरीबों की गरीबी
ढकने का छल |
सारे गुनाह करके भी 
बेखोफ होकर जीना |
हर उठती आवाज़ को 
दबाने का हरसंभव प्रयास |
कैसी है ताक़त ?
कैसी है ये  ख्वाइश ?
फिर भी वो कहते हैं ,
यही ज़ज्बात हैं |