सिर्फ समर्पण

प्यार का मतलब ...
अगर दान जैसा होता |
तो इंसा खुद से इतना 
परेशान न होता |
प्रकृति और  इंसा के प्यार में 
बस यही एक है अंतर  |
उसके अन्दर  लेने की 
चाहत जो  नहीं है |
हम जानते हैं इंसा सिर्फ
भावनाओं में है जीता |
कुछ देके लेने की 
चाहत है करता | 
यही उसके दुःख का 
कारण है बनता |
अगर ऐसा न होता तो वो 
कभी तन्हा  न होता |
सब उसके  होते और 
वो सबका होता |
पाने की चाहत में 
वो इंसां को बांधना है चाहता |
न बंधने  की चाहत में 
वो उसको खोता है जाता |
प्यार तो पहले ही से 
बंधने से है डरता |
न बंधने  की चाहत में 
वो इंसा से दूर - दूर होता |
इसी भ्रम में इंसा  
अपना जीवन बिताता |
बिना कुछ पाए ही 
दुनिया से है जाता |   

सत्य सिर्फ मृत्यु

सब जानते हैं ...
सबकी  मंजिल का पता 
सिर्फ एक ही तो है |
पर उसके नाम से ही ,
हम सब काँप जाते हैं |
जीवन का  कडवा सत्य ,
जिसे छु कर हम 
सबको गुजरना है |
 उसकी  याद करके  ही ...
बदन में सिरहन सी लाते हैं |
बहुत दहशत है इस नाम में ,
पर सत्य सिर्फ एक ही तो है  |
आये थे जहां से हम ,
उसी राह सबको जाना है |
मोह माया के  बंधन से 
छुटकारा कब कहाँ मिलता |
पर मोह का धागा हमें ...
 खुद से बांधे है रखता |
जब - जब इसको समझने को , 
हम आगे हैं बढ़ते |
मोह खींचकर  हमें ...
अपने पलूं से बांध है देता |
यही वजह हमें ...
इसके  डर का कारण बनाती है | 
हममे इसके प्रति  
और दहशत फैलाती  है |
वास्तव में अगर आस्तित्व है ,
तो सिर्फ मोक्ष ही में  है  |
जो इसके सबसे करीब है 
वो मृत्यु ही तो है |

ख्वाबों की परी

पानी की गगरी छलकी , 
प्यार की पींगें , हल्की - हल्की |
मस्त पवन का झोंका ,
किसने है , तुझको रोका |
बारिश की प्यारी बुँदे ,
दिल की बगिया में कूदें |
वो तेरा - मेरा मिलना ,
फूलों का , बगिया में खिलना |
वो धुप - छाँव का चलना ,
मदमस्त मुझे फिर  करना |
ये तेरी - मेरी बातें ,
रंगीन बनाती रातें |
ये तारों का रौशन होना ,
मेरे अंग - अंग में बसना |
ये पायल तेरी रूनछुन ,
मुझे बार - बार कहे , सुन - सुन |
तू भोली - भाली  बाला ,
कह दे अपनी अभिलाषा |
मैं तेरा प्रेमी पागल ,
उड़ आ बनके तू बादल |
तुझे दुनिया नई दिखाऊंगा  ,
फिर तेरा ही हो जाऊंगा   |
तुझे खुद से ज्यादा चाहूँगा 
अपनी सांसों में बसाऊंगा | 

हसरत

एहसास ही न हो  , नहीं ऐसा तो नहीं है |
पर ख्वाबों का जखीरा , उसे जोड़े नहीं है |
एक एहसास से इन्सान , जुड़ता है जैसे ,
दुसरे ख्वाब की दरकार भी ,करता है वैसे |
उसके ख्वाबों  का पुलिंदा , बढता है जाता |
एहसासों के पथ से वो ...  हटता है जाता |
इस भागती दुनियां में वो , भागता जा रहा है |
संवेदनाओं से अनजाने ही , हटता जा रहा है |
सबको पाने की चाहत में , सबको चाह रहा है |
इसी तरह वो... अपनों को  खोता जा रहा है |
थोड़े से पाने कि चाहत में ज्यादा गवां रहा है 
अपनी ही जिंदगी से रुसवा होता जा रहा है |
न जाने कहाँ जाकर ठहरेगी , उसकी ये हसरत |
अरमानों पुलिंदा हरपल , बढ़ता ही जा रहा है |
ऐसा  न हो कि... दूर हो जाये उससे उसकी अपनी मोहब्बत |
क्युकी वो सबको , अपने पहलूँ में बाँधना चाह रहा है | 

जीवन का अर्थ


एक दिन जिन्दगी 
हमसे रूबरू होके बोली |
कौन हो तुम और
किसके लिए हो ?
साँस लेते रहना सिर्फ ...
आदत ही तो नहीं है ?
किसके हो और 
किसके खातिर बने हो ?
अब हम जिन्दगी को 
इसका क्या जवाब देते ?
हमें तो लगा था हम 
जुड़वाँ हैं बहनें |
हमारा जन्म - मरण 
हमारी मर्जी तो नहीं है |
हम तो बस ...कुछ पल को
खुद को  है समेटे |
क्या देना है क्या है लेना 
उफ़ .... कितने सवाल थे ये ?
तब जाके फिर ...
जिन्दगी के पन्नों  से हम गुजरे |
बचपन के दृश्य में जाके 
कुछ पल को  ठहरे |
दस , बारह  बच्चों की थी वो टोली ,
हार- जीत के क्षण में आके थी ठहरी |
चीटिंग - चीटिंग के शोर से था 
सारे आलम में सन्नाटा |
यहाँ  अमीरी गरीबी से ... ये कह रही थी |
जीत भी केवल , अमीरों के  हक में हो जैसे |
उसी का इंसाफ करके , तब हम आगे बड़े थे |
दर्द था पुराना , पर कसक आज तक थी  |
जिंदगी का सही अर्थ तो जाना उसी पल था |
जिंदगी में सबको जीने का बराबर का हक है |
की जीवन का सही अर्थ तो छुपा इसी में था |

सपने अपने - अपने


सपने तो थे फूल से , दिल में चुभे शूल से ,
लूट लिए सारे सपने , बागों के बबूल ने |


हम तो बस खड़े - खड़े , बहार देखते रहे |
कारवां निकल गया , हम धुल देखते रहे |

कैसा था ये मंजर , धुप अब थी ढल चुकी |
अब आगे क्या बढ़ते , जिंदगी थी लुट चुकी |

पत्ते - पत्ते झर चुके , शाख जैसे जल गई |
चाह पूरी न हुई , उम्र सारी थी गुजर गई |

गीत मेरे थे  रुक गये , छंद मंद पड़ गये |
साथ के संगी - साथी , धुवां बनके उड़ गये |

आज हम वहीँ खड़े , थोड़े से झुके - झुके |
उम्र के पढाव पर , उतार देखते रहे |

कारवां चला गया , हम राख देखते रहे |
धूल में उड़ता हुआ , बस गुबार देखते रहे |
 

दिल है कि मानता नहीं


दिल का क्या है ...
न जाने किसके पहलूँ में जाके ठहर जाये |
किसी पहचान की उसे ...
जरूरत ही कहाँ होती है |
बस निकल जाता है किसी भी पल 
खुद को कुर्बान करने ,
फिर लाख बुला लो , कहाँ मानता है |
बहुत जिद्दी है ये हमारी तरह 
अपने पहलूँ में तो , पल भर ठहरता  ही नहीं  |
बस जहां ख़ुशी मिली की बस 
उसकी  तरफ  ही लपक लिए  |
यूँ कहो की उससे ही जुड़ने को बेताब |
पर ये बैरी  जमाना ...
कहाँ ठहरने देता है उसे वहाँ ...
वो तो बस आँखे बिछाये 
इसी इंतजार में खड़ा रहता है कि ...
कब वो अपने सफ़र पर निकले 
और वो अपने काम को अंजाम दें |
बहुत पहरे हैं उसपर ...
पर वो भी किन्ही बेड़ियों से कब डरता है |
सारे बन्धनों को पल - भर में तोड़ 
अपने सफ़र को निकल चलता है |
फिर अंजाम कि किसे परवाह ?
अजी ... दिल $$$ है कि मानता नहीं |