बेखबर बचपन

कितना खुबसुरत  है ये बचपन 
खुद से ही बेखबर |
न कोई सोच , न ही विचार |
न कोई शिकवा , 
न ही कोई शिकायत |
अपनी ही दुनिया में मग्न ,
न कोई  चाहत , न ही बगावत |
आज लड़ना , कल वही अपना |
हर किसी से बेखबर , 
सिर्फ अपनी मंजिल का जश्न |
खुद से सवाल , खुद ही जवाब |
सब कुछ पाने की चाह ,
न मिले तो भी न कोई बात |
मस्त गगन में उड़ते पंछी जैसा ,
स्वछंदता से बस उड़ते रहना |
हर सुबह नए सपनों में जागना |
रोज़ उसे हसीं रंगों से रंगना |
हाँ यही तो है वास्तविक जीवन  |
हर हाल में मस्त , हर बात से बेखबर |

परिचय



फूल मुझे पसंद नहीं , 
मै कांटो का दीवाना हूँ  |
मै जलने वाली आग नहीं , 
जल जाने वाला परवाना हूँ  |
ख्वाब मुझे पसंद नहीं,
मै हकीकत का आशियाना हूँ  |
मै मिटने वाली हसरत नहीं, 
जीने वाला अफसाना हूँ  |
मै थमने वाला वक़्त नहीं,

साथ चलने वाला सहारा  हुं |
मैं ठंडी होती आग नहीं ,
न छु पाने वाली ज्वाला हूँ |
मै रूकने वाली सांस नहीं, 

दिल मे धडकने वाला लावा  हूँ |
कहाँ बांध सकेगा मुझको कोई ,
मैं तो बहने वाली दरिया हूँ |
मैं तो साथ लिए बह जाउंगी  |
सागर में ही तो समाना है|

क्यु हो इंतजार


कौन  जीता है किसी और की खातिर |
सबको अपनी ही बात पर रोना आया |
बूढी आँखों में  न जाने किसका इंतजार हैं 
खुद को सँभालने की एक नाकाम  कोशिश
गालों तक लुढकते हुए  आंसूं
दिल में दर्द को झुपाने की लाख कोशिश
आवाज़ को बनाये रखने का झूठा प्रयास
पर उम्र तो सब कुछ ब्यान कर देता है
विश्वाश ही है जो अभी भी जिन्दा  है
दर्द एसा की एक टीस की तरह ...
कब सैलाब बनकर सुनामी का रूप ले ले |
कौन  झुकना चाहता है ?
सब अपने मद मैं चूर
सबका अपना - अपना अहम्
कौन किसके साथ है ?
सबका अपना -अपना कारवां
अपनी अपनी मंजिले ...
पर ये जर्र - जर्र शरीर
कहाँ ये सब जानता  है ?
बूढ़े कन्धों को तो सहारे की चाह
किसी की हमदर्दी की आस
अब भी है , की काश वो लौट आये
वो छुहन , वो स्पर्श , वो एहसास
फिर से पाने की नाकाम  चाह
अपनों से कुछ प्यार पाने की उम्मीद
पर किसके पास है इतना समय ?
न जाने ये इंतजार कब खत्म होगा ?
काश वो भी ये सब जान जाते
कि... समय ही किसके पास है |

प्रकृति से सीखो

सर्द मौसम मैं सूरज की तपन 
जैसा हो आदमी 
बंजर धरती में पानी की  बूंद 
जैसा हो आदमी 
भवरों के लिए फूलों ... 
जैसा  हो आदमी 
समुद्र में  शांत लहरों ...
जैसा हो आदमी 
सारी सृष्टि की तरह निस्वार्थ भाव से 
जीता जो  आदमी 
फिर क्यु न सबसे न्यारा - प्यारा  
होता आज  आदमी 
हवा की ठंडी - ठंडी बहती 
धारा सा हो आदमी 
पेड़ों की तरह ठंडी छाँव 
देता जो  आदमी 
चारों तरफ चाँद की सी शीतलता  
लुटाता जो आदमी 
सारे एहसासों को  खुलकर
अगर जीता  आदमी 
अपनी भी कहता ओरों की भी 
जो सुनता आदमी 
तो सारे जहाँ में आज सबसे ऊँचा 
होता आदमी |

प्रगति के पथ पर


क्यु डरता है इन्सान ?
किससे डरता है इन्सान ?
धरती माँ है न उसके साथ 
घास  की भीनी - भीनी सुगंध 
पत्थरों की शीतलता 
मिट्टी की शक्ति ...
सिर्फ महसूस करने की देर है |
चारों तरफ पहाड़ियाँ ,
बर्फानी पहाड़ हाथ फैलाये 
उसके दीदार के लिए  खड़े हैं |
फूलों की डालियाँ हरदम 
झुकने को तैयार खड़ी हैं |
पक्षी को देखो तो 
चहचहाने के लिए बेताब है |
कहाँ अकेला है इन्सान ? 
सारी प्रकृति तो उसके दीदार में 
आँखें बिछाये खड़ी है |
फिर क्यु अंधकार को 
निहारना ?
क्यु थककर बैठ जाना |
क्युकी जो ईश्वर में है 
वही सब तो है उसमें  |    

सिर्फ शोर

हर तरफ भीड़ 
जहां देखो वहीँ  शोर 
कहाँ ठहरती है ये ...भीड़ 
सिर्फ कुछ पल 
फिर वही सन्नाटा |
और फिर सब अपनी राह ...
क्यु बन जातें हैं हम 
इसका हिस्सा ?
कौन  है जो सुनेगा वहां 
वहां तो सिर्फ शोर है |
आवाज से आवाज का टकराना 
और फिर बिना कुछ पाए 
वापस लौट  जाना |
वहां तो खुद की आवाज भी 
ठीक से नहीं सुनती 
फिर किसी और की बात ?
नहीं - नहीं भीड़ का 
कोई आस्तिव नहीं ...
वहां सिर्फ शोर है 
जहां वो सिर्फ अपनी 
कहने को ठहरा है |
उसमें किसी का भी हित नहीं 
गौर से देखो तो 
सिर्फ खालीपन 
इसके सिवा कुछ भी नहीं |