
कब हुई विमुख मैं
अपने किसी कर्तव्य से |
बह रही हूँ आज भी
कल - कल के उसी वेग से |
बच - बच के आज भी चलती
पत्थरों के प्रहार से ... |
कर रही हूँ सबका पोषण
आज भी उसी सम्मान से |
ऊँचे - ऊँचे पर्वतों को
भेंद्ती में चल रही |
कठिन रास्तो को पार कर
आगे ही आगे बढ़ रही |
कभी चंचल , कभी कलकल
कभी भयावह रूप धर - धर के ,
चलती हूँ धरा की गोदी में
जन - जन की प्यास बुझाने तक |
मिलकर आज जो सागर में
अपना मैं आस्तिव गंवाती हूँ |
उठकर उसी की गोदी से
अपना आस्तिव फिर में पाती हूँ |