उसकी आहें बहुत से सवाल करती हैं |
चलती तो है राहबर संग
पर खुद के जवाब से अनजान रहती है |
मौन पहेली की तरह आती है ,
और सृजन करके चली जाती है |
अपने सवालों का जवाब वो ताउम्र ...
न ढूंड पाती है |
खुद के दर्द को समेटकर
सबके चेहरे में ख़ुशी लाती है |
सुन्दर संस्कारों और अच्छे आचरण
बच्चों में भर कर सबका घर सजाती है |
पर अपनी चाहत किसी से न कह पाती है |
वो दबी - दबी सी आह
बस सुलगती ही रह जाती है |
फिर आसुओं में उन्हें बहाकर
वो खुदको सुकून दिलाती है |
प्यार तो सब करते हैं उसे ...
पर एहसास देने से कतराते हैं |
अपने बेमतलब के अहम् की खातिर
आपस के प्यार को न समझ पाते हैं |
शायद ये सब उपर वाले की माया है |
अरे हम भी तो ऐसे ही कह रहे हैं ,
ये तो चलती - फिरती रचना का साया है |