एक झूठी उम्मीद

 

सुना था 
उस गांव में अब 
कोई नहीं रहता |
टिमटिमाती लौ में 
एक साया अक्सर 
दिखाई है देता |
किसका है वो अपना
जो गश्त वहाँ लगता है ?
अपने तो कहते हैं वहाँ
अब वहाँ सन्नाटों ने 

घर बसाया है |
वो लाठी , वो चश्मा
वो झुकी झुकी सी देह 

किस गुजरे पल  की 
दास्ताँ है कह रही ?
बंजर पड़ी धरती को
निहारकर कर वो क्यु
उसके लहलहाने का
इंतज़ार है कर रही |
शायद अपनों को
इस बात का अब
इल्म ही नहीं  |
कि आज भी ...उनकी जननी
अपनों के लौट आने की
आस में है जी रही |

दोषी कौन



खबर पढ़ी थी मैंने 
वो मर गया ...
फांसी लगाई थी उसने 
पर लोग कहते थे 
कुछ परेशान सा था वो
बहुत गलत किया उसने
साबित भी हो गया
कि ये आत्महत्या थी
और कानून कि नज़र में
ये एक जुर्म है
तो क्या इसका
जिम्मेदार वो खुद है ?
खुशी , दर्द , छटपटाहट
ये सब अपने बस में कहाँ ?
मजदूरो को कारखानों में
काम न मिलना |
किसानों को उनकी उपज का
सही दाम न मिलना |
बुनकर का करघा
हथिया लेना |
क्या इन सब में
किसी कि भी साझेदारी नहीं ?
क्या ये बिना हथियार के
दिए गए मौत के बराबर नहीं ?
फिर इस जुर्म का
वो अकेला भागीदार ?
सवाल तो और भी हैं
पर कहें तो किससे कहें हम 

चलो आज फिर खामोश ही रहे हम |