बहती नदिया बनकर
हर पल बहती ही रहती हूँ |
राह में ईंट - पत्थर के
रोकने पर भी मैं न रूकती हूँ |
अपने प्रवाह से उनको भी ...
साथ लेके चलती हूँ |
रुक जो मैं जाती तो प्यास
कहाँ बुझा पाती ?
इसलिए हर पल बहती हूँ
बहती ही जाती हूँ |
कठिन राह से गुजर कर
दर्द को भी गले लगाती हूँ |
अपने मिट्ठे एहसासों से
सबकी थकन मिटाती हूँ |
हर वक़्त खुद को समर्पित कर
लोगों की प्यास बुझाती हूँ |
अपने संघर्ष के दम से
एक दिन सागर में समाती हूँ |
सागर की गोद में जाके
अपना आस्तिव खोजती हूँ |
न मिल पाने की सूरत में
फिर मैं ऊपर उठती हूँ |
बादल से मिलकर बूंदें बनकर
फिर बरसती हूँ |
बंज़र पड़ी धरती को अपनी बूंदों
से भिगोती हूँ |
इन्सान की प्यास को
मिटा के उसे गले लगाती हूँ |
न कुछ पाने की चाहत में
हर दिन खुद को मैं ऐसे सजाती हूँ |
14 टिप्पणियां:
बस यही है ज़िन्दगी का सच …………और सफ़र भी………सुन्दर भावाव्यक्ति।
इन्सान की प्यास को
मिटा के उसे गले लगाती हूँ |
न कुछ पाने की चाहत में
हर दिन खुद को मैं ऐसे सजाती हूँ |
बेहतरीन पंक्तियाँ.
सादर
'न कुछ पाने की चाहत में
हर दिन खुद को मैं ऐसे सजाती हूँ '
..................एक पूरा जीवन दर्शन समाहित है आपकी सुन्दर एवं प्रवाहमयी रचना में
इन्सान की प्यास को
मिटा के उसे गले लगाती हूँ |
न कुछ पाने की चाहत में
हर दिन खुद को मैं ऐसे सजाती हूँ |
-सुन्दर भाव!!
खूबसूरत अभिव्यक्ति..
हर ऐसा एहसास कुछ न कुछ लिखने को बाध्य करता है..
beautiful personification of river...
and yeah we can learn a lot of lessons from a river.
सागर में समा कर अपना अस्तित्व मिटा देने के बाद भी फिर से उठने की कल्पना अच्छी लगी | साधुवाद |
प्रशंग्सनीय प्रस्तुती! बहुत बहुत बधाई
प्रशंग्सनीय प्रस्तुती! बहुत बहुत बधाई
नदिया हूँ पर खुद प्यासी हूँ।
बंज़र पड़ी धरती को अपनी बूंदों
से भिगोती हूँ |
इन्सान की प्यास को
मिटा के उसे गले लगाती हूँ |
न कुछ पाने की चाहत में
हर दिन खुद को मैं ऐसे सजाती हूँ |
....
sarthak hai is nadi ka jeewan !! baki to sab baaten hain.
बहुत सुन्दरता से भावों को पिरोया है आपने...!!
bhut hi sunder shabd rachna...
नदी की ,नारी की एक सी जिनगानी है.बहुत सुन्दर भाव पूर्ण कविता है.
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