एक झूठी उम्मीद

 

सुना था 
उस गांव में अब 
कोई नहीं रहता |
टिमटिमाती लौ में 
एक साया अक्सर 
दिखाई है देता |
किसका है वो अपना
जो गश्त वहाँ लगता है ?
अपने तो कहते हैं वहाँ
अब वहाँ सन्नाटों ने 

घर बसाया है |
वो लाठी , वो चश्मा
वो झुकी झुकी सी देह 

किस गुजरे पल  की 
दास्ताँ है कह रही ?
बंजर पड़ी धरती को
निहारकर कर वो क्यु
उसके लहलहाने का
इंतज़ार है कर रही |
शायद अपनों को
इस बात का अब
इल्म ही नहीं  |
कि आज भी ...उनकी जननी
अपनों के लौट आने की
आस में है जी रही |

13 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपनों में लौट जाने की आस सदा ही जीवित रहती है..

vidya ने कहा…

शहर की चकाचौंध ने सचमुच भुला दिया है अपनों को..अपनों के सपनो को...
भावपूर्ण रचना..

विभूति" ने कहा…

एक जूठी उम्मीद ही जिन्दगी को जीना सिखा देती है....

संध्या शर्मा ने कहा…

कभी न ख़त्म होने वाला इंतजारउसके लिए जीने का सहारा है...
यही यथार्थ है...

babanpandey ने कहा…

waah..intzaar ka dard..
सुन्दर..पोस्ट . होली की शुभ कामनाएं /
मेरे भी ब्लॉग पर आये /

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

kaheen door jab din dhal jaaye....

Yashwant Mehta "Yash" ने कहा…

रूठे हैं पिया....अब तो मान ही जायेंगे.....प्रेम समर्पण से लबालब अद्भुत रचना

Bharat Bhushan ने कहा…

उम्मीद झूठी ही सही, लेकिन अपनों की आस लगी रहती है.

Saras ने कहा…

पहली बार आपके ब्लॉग पर जाना हुआ
मीनाक्षीजी, आपकी सीधी सच्ची कविता छू गयी, बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति!

Saras ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत प्यारी रचना...
झूटी उम्मीद भी जीने का सबब बन जाती है...

सादर.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

भावपूर्ण अभिव्यक्ति

Roshi ने कहा…

bahut sunder bhav ki rachna........