कल्पना

चित्रकार की कैसी  है ये कल्पना  |
उसको तो कुछ न कुछ है रंगना |
मंदिर ,  मस्जिद में चला गया |
थी कोशिश इंसा में ही रब को पाना  |
पर कोई भी एसा  नहीं मिला |
अपनी रचना सा नहीं दिखा   |
फिर दूर तलक वो जब पहुंचा  |
बंसी की धुन सुन ठिठक गया |
सृष्टि में एक ख़ामोशी थी |
 बंसी की धुन ही बाकि थी |
चेहरे में उसके  रौनक थी |
उसकी रचना अब  पूरी थी |
उसने उसमें कुछ देखा था |
शायद प्रेम रस ही बरसा  था |
वो उसकी धुन में बह निकला |
सृष्टी के ही रंग में रंग निकला |
फिर एक नई तस्वीर बनी |
इंसा के अन्दर की तस्वीर सजी |
जिसे वो बाहर खोजा करता था |
रंगने को तडपा करता था |
अब उसके रंगों को पंख मिले |
उसके जीवन को ढंग मिले |
अब एसे ना  वो भटकेगा |
खुद अपनी तस्वीर बनाएगा  |
इंसा को इंसा से  मिलाएगा |

7 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

कविता का भाव आकर्षित करता है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मानवता का भाव उकेरना है।

राहुल सिंह ने कहा…

अच्‍छे रंग उभरे इय शब्‍द-चित्र में.

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बेहतरीन!


सादर

रश्मि प्रभा... ने कहा…

adbhut bhaw sanyojan

सदा ने कहा…

भावमय करते शब्‍द ।

संजय कुमार चौरसिया ने कहा…

बेहतरीन!