नारी परिचय
तितली सी गगन में ,
उडती फिर रही है वो |
सारी सृष्टि को बस में ,
करने चल पड़ी है वो |
साम , दाम , दंड , भेद
उसने आज अपना लिया |
न आना उसकी राह में ,
उसने तो बीड़ा आज उठा लिया |
तोड़ सारे बंधन आगे
आज वो है बढ चली |
किसकी थी खता ,
जो आज वो एसी बन चली |
इन्सां होके जब ...
इन्सां के दर्द को न जानोगे |
फिर अपनी अस्मिता के खातिर ,
उसको एसा ही पाओगे |
अब क्यु रुके वो ,
जब राह में इतने कांटे हों बिछे |
क्यु दे - दे अपनी जान ,
जब जान के दुशमन
सब उसके हो चले |
नारी के क्रंदन को ,
अपना दर्द गर न बनाओगे |
छुट जायेगा सब कुछ अगर ...
आज उसे तुम न अपनाओगे |
नारी की देह केवल ,
एक खिलौना ही तो नहीं |
जान भी होती है उसमें ,
ये कब तुम समझ पाओगे ?
सारी सृष्टि में उसका भी तो अंश है |
उसके बिना तो हो सकता विध्वंश है |
नर - नारी दोनों का ,
सम्मान ही अपना धर्म है |
न करना विचार की वो नर से ,
कभी हो सकती भिन्न है |
जितनी हवा दोगे ,
आग उतनी बढती चली जाएगी |
अपनी ही आग में सबको ...
राख़ करती जाएगी |
रोक लो उसको की ...
वो ज्वाला न बन जाये |
शांत करदो एसे की फिर से
निर्मल धारा सी हो जाये |
20 टिप्पणियां:
मीनाक्षी जी,
बहुत सुन्दर कविता है, इसमें वीर-रस दिखाई दे रहा है|
"न आना उसकी राह में ,
उसने तो बीड़ा आज उठा लिया|"
यदि मौका मिले तो मेरा यह लेख पढ़ें इसमें बताया है कि कैसे सामूहिक ब्लॉग समाज में महिलाओं की स्थिति को सुधार सकते हैं|
सामूहिक ब्लॉग के लिए एक आइडिया
एक बात बतानी रह गयी, अपनी कविताओं में "कविता" टैग का प्रयोग जरूर करें
बहुत अच्छी लगी यह कविता.
पूरी कविता के साथ ही यह पंक्तियाँ बहुत प्रभावपूर्ण लगीं-
"रोक लो उसको की ...
वो ज्वाला न बन जाये |
शांत करदो एसे की फिर से
निर्मल धारा सी हो जाये |"
सादर
good one .....
जब जान के दुशमन सब उसके हो चले | नारी के क्रंदन को , अपना दर्द गर न बनाओगे
......बहुत अच्छी लगी यह कविता.
khaas aur alag pahchaan hai
हम- तुम मिलते थे
दूसरों की नज़रों से बचते -बचाते
कभी झाड़ियों में
कभी खंडहरों के एकांत में
सबकी नज़रों में खटकते थे
फिर एक दिन ...
घर से भाग गए थे
बिना सोचे-समझे
अपनी दुनियाँ बसाने //
नीबुओं जैसी सनसनाती ताजगी
देती थी तेरी हर अदा
कितना अच्छा लगता था
दो समतल दर्पण के बीच
तुम्हारा फोटो रख
अनंत प्रतिबिम्ब देखना
मानो ...
तुम ज़र्रे-ज़र्रे में समाहित हो //
कहने को
हम अब भी
एक-दूजे पे मरते है
एक-दुसरे के साँसों में बसते हैं
एक-दूजे के बिना आहें भरते है
मगर ....
दिल के खिलौने को
हम रोज तोड़ते हैं
क्योकि हम प्यार करते है //
फिर भी अपरिभाषित नारी.
मैं अपने सभी प्यारे दोस्तों का तहे दिल से शुक्रिया करना चाहूंगी की आपने अपना कीमती वक़्त निकल कर मेरी रचना में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की | बहुत - बहुत शुक्रिया दोस्तों |
'नारी की देह केवल
एक खिलौना ही तो नहीं
जान भी होती है उसमे ,
ये कब तुम समझ पाओगे ?'
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नारी जागरण की..........ललकार भरी रचना
बहुत अच्छी लगी यह कविता|धन्यवाद|
इन्सां होके जब ... इन्सां के दर्द को न जानोगे | फिर अपनी अस्मिता के खातिर , उसको एसा ही पाओगे |
Bahut badhiya Minakshi ji..
ek nayi pahchan deti apki panktiya... bhut khubsurat...
रोक लो उसको की ... वो ज्वाला न बन जाये | शांत करदो एसे की फिर से निर्मल धारा सी हो जाये |
बहुत अच्छी हिदायतें दी हैं आपने.
नारी निर्मल धारा बनकर ही शोभित होती है.
बहुत बहुत आभार शानदार व अनुपम प्रस्तुति के लिए.
मेरे ब्लोक पर आपका स्वागत है ---मुझे अत्यधिक ख़ुशी हुई आपके आने से --आशा है ये सफर जारी रहेगा --
"रोक लो उसको की ...
वो ज्वाला न बन जाये |
शांत करदो एसे की फिर से
निर्मल धारा सी हो जाये |"
यह पंक्तियाँ दिल को छू गई !
kahin padha tha..
hai re naari
teri yahi kahani
ontho pe hai dard
aankho me pani...!!
sach me aapki abhivyakti ka jabab nahi:)
सुंदर परिचय।
---------
देखिए ब्लॉग समीक्षा की बारहवीं कड़ी।
अंधविश्वासी आज भी रत्नों की अंगूठी पहनते हैं।
सुंदर परिचय।
---------
देखिए ब्लॉग समीक्षा की बारहवीं कड़ी।
अंधविश्वासी आज भी रत्नों की अंगूठी पहनते हैं।
बहुत ही सुन्दर कविता।
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