चलो आज फिर उनके कुचे में जाएँ |
उन्हें हम बुलाएँ उन्हें हम हंसाये |
किस कदर दुनियां से दूर रहते हैं ये सब |
फिर भी कहते हैं यहाँ ... मेरे ही तो हैं सब |
क्यु इनकी दुनियां इनसे इतनी खफा है |
सब हैं इनके फिर भी इनसे जुदा हैं |
यही दस्तूर हैं शायद घर बनाने वालों का |
बनाने वाला हमेशा बरामदों में खड़ा है |
इनकी हिम्मत ही इनके जीने का हैं मकसद |
वर्ना दिल तो इनका कबका छलनी हुआ है |
क्यु दर्द देतें हैं अपने अपनों को इस कदर |
क्या कोई कभी इनसे हुई कुछ खता है ?
फिर भी है जन्मदाता इन्हें क्यु सताना |
इनकी छोटी भूल पर भी इन्हें गले तुम लगाना |
इनकी उम्र में अपने बचपन को देखो |
खुद को माँ - बाप इनकों बच्चा ही तुम समझो |
बहुत अकेले हैं ये इन्हें कुछ तो संभालो |
इनके दर्द में मलहम आज फिर से लगाओ |
खुद थोडा झुक कर इन्हें उपर उठाओ |
इनके आशीर्वाद से अपना जीवन संवारों |
5 टिप्पणियां:
sundar rachna
Bahut acchi rachna Minakshi ji.Sachmuch dusron ke kooche mein jakar unki zindgi jeena hi jeena hai.
बड़ी सुन्दर रचना।
बहुत अकेले हैं ये इन्हें कुछ तो संभालो |
इनके दर्द में मलहम आज फिर से लगाओ |
खुद थोडा झुक कर इन्हें उपर उठाओ |
इनके आशीर्वाद से अपना जीवन संवारों |
बहुत संवेदनशील चिंतन ...
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति .
बहुत खूबसूरत भाव...काश आज के इकाई परिवार के सभी माता पिता अपने बच्चों को कम से कम महीने में एक बार वृद्धाश्रम ले जाया करें.. अगर दादा-दादी और नाना-नानी हैं तो उनसे मिलवाएँ..सच है कि उन्हें बस थोड़ा सा प्यार ही चाहिए..
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