बहती नदिया


कब हुई विमुख मैं 
अपने किसी कर्तव्य से |
बह रही हूँ आज भी 
कल - कल के उसी वेग से |
बच - बच के आज भी चलती 
पत्थरों के प्रहार से ... |
कर रही हूँ सबका पोषण 
आज भी उसी सम्मान से |
ऊँचे - ऊँचे पर्वतों को
भेंद्ती में चल रही |
कठिन रास्तो को पार कर 
आगे ही आगे बढ़ रही |
कभी चंचल , कभी कलकल 
कभी भयावह रूप धर - धर के ,
चलती हूँ धरा की गोदी में 
जन - जन की प्यास बुझाने तक |
मिलकर आज जो सागर में 
अपना मैं आस्तिव गंवाती हूँ |
उठकर उसी की गोदी से 
अपना आस्तिव फिर में पाती हूँ |

15 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जीवन कितना कुछ नदी जैसा है

babanpandey ने कहा…

written in very interesting way...Minakshi jee//
happy new year...come on my blog too

vidya ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना ..
प्रवाहित हो गयी सीधे ह्रदय में...
सादर.

***Punam*** ने कहा…

सागर में मिलने के बाद भी नदी का अपना अस्तित्व होता है....!!

खूबसूरत..!!

विभूति" ने कहा…

बहुत ही खुबसूरत
और कोमल भावो की अभिवयक्ति...

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

NADI AUR NARI ME KOI FARK NAHI.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

Anupama Tripathi ने कहा…

उठकर उसी की गोदी से
अपना आस्तिव फिर में पाती हूँ |

sunder satya aur sarthak ...
badhai Meenakshi ji is rachna ke liye ...!!

Unknown ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना

सागर ने कहा…

nadiyo ki ye kahani bhasut hi sarthak lagi..........

केवल राम ने कहा…

जीवन यही तो है ...!

Unknown ने कहा…

bahut hi sundar aur sarthak rachna.
mere blog me bhi aayen..
मेरी कविता

मुकेश पाण्डेय चन्दन ने कहा…

sachmuch jeevan bhi nadi ki tarah hota hai , bahut hi sundar abhivyakti !!

Unknown ने कहा…

▬● बहुत खूबसूरती से लिखा है आपने... शुभकामनायें...

दोस्त अगर समय मिले तो मेरी पोस्ट पर भ्रमन्तु हो जाइयेगा...
Meri Lekhani, Mere Vichar..
.

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत सुन्दर कोमल भावो की अभिव्यक्ति है ...