सफ़र




घर से चले थे घर का पता साथ लेके हम !
चल पड़े थे काफिले संग  दूर तलख हम !
मिलते भी रहें राही बदल बदल के राह मै ,
रुकते भी गये अपने काफिले के संग हम !
अपनी अपनी मंजिल पर मुसाफिर ठहर गये ,
और दूर तलख सब किनारों मै खो गये !
मंजिल पर अब अकेले से हो गये थे हम !
राहें थी अलग -अलग कहीं खो गये थे हम !
फिर हाथ पकड़ कर किसी ने थाम तो लिया ,
पता तो था अलग सा पर आराम सा लगा !
अब दिल की खवाइशों को सुकूं सा मिला  !
जैसे  किसी नदी को सागर का पता मिला !
अब अपनी राह पर फिर चल पड़े हैं  हम !
अब तो सफ़र तन्हां ही तय करने लगे है हम !
क्युकी हम जान गये साथ न कोई आया था !
और जानतें हैं की साथ न अब कोई जायेगा !

6 टिप्‍पणियां:

केवल राम ने कहा…

अब दिल की खवाइशों को सुकूं सा मिला !
जैसे किसी नदी को सागर का पता मिला !
अब अपनी राह पर फिर चल पड़े हैं हम !

सागर का पता मिलना कितना सार्थक है ......एक नदी के लिए ..
उसी प्रकार जैसे एक आत्मा को परमात्मा का पता मिलना
बहुत सुंदर लिखा है मीनाक्षी जी
आपका आभार

संजय भास्‍कर ने कहा…

आदरणीय मीनाक्षी जी
नमस्कार !
कोमल भावों से सजी
आप बहुत अच्छा लिखतें हैं...वाकई.... आशा हैं आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा....!!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव।

Creative Manch ने कहा…

अब दिल की खवाइशों को सुकूं सा मिला !
जैसे किसी नदी को सागर का पता मिला !

वाह वाह ....क्या बात है
बहुत सुन्दर भावमयी रचना
बधाई

आभार

Rahul Singh ने कहा…

जीवन के सफर में राही...

Anupama Tripathi ने कहा…

सटीक सार्थक बात कहती हुई अनमोल रचना -
शुभकामनायें