कहाँ जानती थी मैं ,
कि मुझे क्या मिलेगा ?
जब पहली बार मैंने ...
इस दुनियां में कदम रखा था |
पर मिला एक खुबसूरत संसार
पिता के रूप में एक मजबूत पेड ,
माँ के रूप में खुबसूरत छाया |
जहां खुद को हमेशा सुरक्षित पाया |
जिसने हर वक़्त मुझे ...
कड़ी धुप से बचाया |
भाई - बहन के साथ बीते
वो सुनहेरे पल |
बस ये सुन्दर सफर
कब कैसे बीत गया पता ही न चला |
फिर एक और सफर ...
मगर अनजाना शहर |
जहां हर तरह के लोग थे
प्यार था तकरार था ,
क्युकी वो मेरा ही तो ससुराल था |
आज वो सफ़र निरंतर जारी है |
पर आज वो बेगाना नहीं ,
आज सब मेरे ही संगी साथी हैं |
16 टिप्पणियां:
सब मेरे ही संगी साथी हैं |
bahut sunder sukomal sakaaratmak kavita.
very creatively described the whole journey of yours in few lines.... full of emotions and love !!!
bahut sunder bhav liye jeevan ke sachche rishton ko bayaan karati hui sunder rachanaa.badhaai sweekaren.
please visit my blog.thanks.
हर शब्द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।
कई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
नया घर नया जीवन।
अच्छे भाव व्यक्त हुए हैं कविता में।
बेगाना शहर अपना लगने लगा और क्या चाहिए :):)
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
अच्छे भाव
बहुत सुन्दर रचना ...बचपन से ले कर अनजानी दुनिया जो अपनी बन जाती है ससुराल बन के ..उसकी अद्भुत व्याख्या कविता के माध्यम से ... उम्दा ...आपका मेरे ब्लॉग अमृतरस में स्वागत है ..
bhut hi sunder aur bhaavpur vabhivakti...
सुंदर काव्यचित्र है।
आभार
मर्म स्पर्शी अभिव्यक्ति.अपने व पराये का भेद मिटाने के लिए ही नारी का सृजन हुआ है. मेरे माता-पिता,मेरे भाई-बहन के बाद मेरे बच्चे,मेरा परिवार.
sabhi racnayein bahut hi sunder
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