आज फिर सपने में तुम्हें देखा मैंने ...
इस बार भी तुम्हे छुने की ख्वाइश मन में हुई |
आज फिर बड़ी मुश्किल से खुद को रोका मैंने |
इस बीच तो हवस के सिवा कुछ भी नहीं |
कभी मिलो जिस्म से अलग कही दूर मुझे |
जहाँ न तुम और न ही मैं रहूँ ...
एक दूजे के अहसास का सिर्फ जल तरंग सा बजे |
ये इजहारे और इकरारे वफा से अच्छा होगा |
फिर हवस का न इसमें कोई नामों निशां होगा |
13 टिप्पणियां:
कभी मिलो जिस्म से अलग कही मुझे
बेहतरीन पंक्तियाँ। देह के क्षणिक सुख से अलग हटकर प्रेम के शाश्वत रूप की स्वीकार्यता को सामने रखती रचना। बहुत अच्छी, बहुत सार्थक। बधाई!
रूह से रूह का मिलन हो...............
बहुत सुंदर मिनाक्षी जी.
असली मिलन तो रुह से रुह का ही होता है..बहुत सुंदर मिनाक्षी जी.
ये इजहारे और इकरारे वफा अच्छा होगा |
फिर हवस का न इसमें नामों निशां होगा |
बहुत सुंदर रचना...बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई मीनाक्षी जी,.....
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MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
वाह! बहुत खुबसूरत एहसास पिरोये है आपने.....
पिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...
....... रचना के लिए बधाई स्वीकारें....!!!
इतना पवित्र प्रेम कहाँ मिलेगा भला..
क्या कहने
बहुत सुंदर
जहाँ न तुम और न ही मैं रहूँ ...
एक दूजे के अहसास का सिर्फ जल तरंग बजे |
ये इजहारे और इकरारे वफा अच्छा होगा |
फिर हवस का न इसमें नामों निशां होगा |
प्रेम के शाश्वत रूप की सार्थक रचना । बधाई!
असली मिलन तो यही है ...
सार्थक/ सुंदर रचना ...
बहुत अच्छा लिखा है आपने बधाई समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/
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