बिटिया ने कदम रख देहलीज़ में
सपनो को सजाने का मन बनाया
न जाने कब ये खबर आग की तरह
हर तरफ फ़ैल गई ?
गलियों में आना - जाना लगा है
घर में कुशल लेने वालों का ताँता लगा है ,
अभी पंख फडफडाये भी न थे की ...
चील , गिद्दों की नजर में लोभ छाने लगा है ,
आँचल में छुपाती देह अपनी
वो कसमसाई सी खड़ी है
आज तक जो बेबाक खेलती थी
तंग गलियों में ...
आज उन्ही से बचके गुजर रही है
पेट की भूख उसे बाहर धकेलती
घूरती निगाह उसके होंसले छीन लेती
न भूख का निवारण हुआ
और न ही मंजिल मिली
जख्मी हाथ , लहुलुहान जिस्म
होंठों पर निशानों में ही
सिमट गई जिंदगी |
11 टिप्पणियां:
झंझोरती हुई रचना
कड़ुआ सच ।
आपकी लिखी रचना बुधवार 30 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (29-04-2014) को "संघर्ष अब भी जारी" (चर्चा मंच-1597) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
झंझोरती हुई कड़ुआ सच.....
बहुत सुंदर ..........
Bahut sundar rachan nari peeda ka sajeev chitran . Bahut bahut aabhar aapka naveentripathi35@gmail.com fb pr aamantran sweekaren
आज का कडवा यथार्थ आजका ही क्यूं शायद हमेशा का।
बहुत सटीक और मर्मस्पर्शी रचना...
बहुत बहुत शुक्रिया दोस्तों ।
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