माँ की कोख , लुट गई ,
इंसानियत घुट के , रह गई |
कुछ कमजर्फ लोगो ने ,
ये घिनौना , कृत्य कर डाला |
बच - बच के थी , चल रही ,
खुद को , साबित भी कर रही |
फिर भी न जाने , दरिंदगी ने ,
बे - वजह , क्यों जुर्म ढा डाला |
उठा अब हाथ में भाला ,
लगा अब नार तू नारा |
उठाये उंगली जो आन पर ,
तो लगा उसको किनारा |
बहुत हो गया अब सम्मान ,
इंसा बन गया हैवान |
अब जमीं में फिर से
दुर्गा का अवतार चाहिए |
उतार , सीने में खंजर ,
तौबा करने लगे , जन - जन |
तू इस अंदाज़ से ,
आँखों में सबके फिर , खौफ उतार दे |
त्राहि - त्राहि का होने लगे गूंजन
सहम जाये फिर हर एक मन ,
दिखा कुछ ऐसा जलवा की ,
हर दिशा में जय जयकार हो जाये |
8 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर रचना!
बेख़ौफ़ दरिन्दे
कुचलती मासूमियत
शर्मशार इंसानियत
सम्बेदन हीनता की पराकाष्टा .
उग्र और बेचैन अभिभाबक
एक प्रश्न चिन्ह ?
हम सबके लिये.
बहुत - बहुत शुक्रिया @ मदन मोहन सक्सेना जी :)
हर दिल से एक ही आवाज उठ रही है कि अब वो नाजुक फूलों सी कोमल बच्चियों को दुर्गा बनने का सन्देश देना होगा. उनमें शक्ति और दृढ़ता ऊर्जा भरनी होगी
आज इसी हुंकार की जरूरत है।
ये क्रोध ये रोष जायज़ है......
बस कुछ नतीजा निकल आये....
अनु
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
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शस्य श्यामला धरा बनाओ।
भूमि में पौधे उपजाओ!
अपनी प्यारी धरा बचाओ!
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पृथ्वी दिवस की बधाई हो...!
शर्मनाक सब कृत्य किया है..
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