तितली सा मन बावरा उड़ने लगा आकाश ,
सतरंगी सपने बुने मोरपंखी सी चाह |
आमंत्रित करने लगे फिर से नये गुनाह ,
सोंधी - सोंधी हर सुबह , भीनी - भीनी शाम |
महकी - महकी ये हवा और बहकी - बहकी धूप ,
दर्पण में न समां रहे ये रंग - बिरंगे रूप |
जाने फिर क्यु धुप से हुए गुलाबी गाल ,
रही खनकती चूड़िया रही लरजती रात |
आँखे खिड़की पर टिके दरवाजे पर कान ,
इस विरह की रात का अब तो करो निदान |
सिमटी सी नादां कली आई गाँव से खूब ,
शहर में खोजती फिरती अपने सईयाँ का रूप |
आँखों में बसने लगे विरह गीतों के गान ,
अंदर से कुछ न बोलती बाहर हास - परिहास |
19 टिप्पणियां:
सिमटी सी नादां कली आई गाँव से खूब ,
शहर में खोजती फिरती अपने सईयाँ का रूप |
आँखों में बसने लगे विरह गीतों के गान ,
अंदर से कुछ न बोलती बाहर हास - परिहास |
बखूबी लिखा इन पंक्तियों विरहे की बेला को
सुन्दर अभिव्यक्ति
सुन्दर
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना....
यह द्वन्द्व मन तोड़कर रख देता है।
भावपूर्ण रचना....
bhaavmayi rachna...
बहुत ही अच्छी रचना ।
सुन्दर रचना , सुन्दर भावाभिव्यक्ति
क्या बात है। बहुत बढ़िया।
क्या बात है। बहुत बढ़िया।
क्या बात है। बहुत बढ़िया।
सुन्दर प्रस्तुति ||
नाजुक रूमानियत.
बहुत सुंदर प्रस्तुति /बहुत बढ़िया भाव से लिखी गई /बहुत बधाई आपको /
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bahut hi sunder prastuti.....
अरे वाह आपने तो कमाल कर दिया ...लाज़वाब रचना है
अति कोमल भावपूर्ण रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
sunder
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